श्री राम माता सीता को अगर बहुत प्यार करते थे, तो वे राज्य त्याग कर सीता के साथ वन क्यूँ नहीं चले गए ?
मान लिया की सीता कोइ प्रमाण नहीं दे पाई कि वे रावण के साथ स्वेच्छा से नहीं गयी थी, लकिन श्री राम को तो पता था, फिर राम ने माता सीता को क्यूँ दोषी माना, और यदि निष्पक्ष न्याय प्रणाली स्थापित करने के लिए अगर यह आवश्यक था वे भी सीता के साथ राज्य त्याग कर वन प्रस्थान कर सकते थे?
अगर अग्नि परीक्षा को अधर्म घोषित करना अवतरित श्री राम और माता सीता का मुख्य लक्ष्य था, तो सीता अकेली को विशेष कष्ट क्यूँ?
क्या यह इसलिए की नारी कल भी अबला थी और आज भी ?
ऐसे अनेक प्रश्न आ रहे हैं और जिज्ञासा भी गंभीर और विचारशील है, इसलिए इस पोस्ट से इसका उत्तर देने का प्रयास है|
पहले तो यह समझ लें कि अवतरित इश्वर मानव रूप मैं मात्र उद्धारण से धर्म स्थापित कर सकते हैं, और कोइ विकल्प उनके पास होता नहीं है| चुकी आप सबने अवतार के इतिहास को अलोकिकी शक्ति के साथ समझा है, इसलिए इस विचार से अलग हट कर ही सब बात समझनी होगी, तभी आप सही उत्तर तक पहुच सकेंगे और वर्तमान समाज का भला कर सकेंगे, जो की धर्म का प्रथम उद्देश होता है|
श्री राम जब लंका मैं युद्ध करने गए, उनका विधिवध राजभिषेक नहीं हुआ था, उस समय एक सेनापति की सामाजिक स्थिथी मैं उनका सीता को वापस साथ रखने के लिए उस समय के धार्मिक नियम, जिसे अग्नि परीक्षा कहा जाता था, मानना ठीक भी था|
परन्तु एक राजा की स्थिथी मैं यदि कोइ विषय उनके सामने आता है, तो उसपर अपने न्यायिक और स्पष्ट विचार, और आदेश देने आवश्यक हो जाते हैं| इसलिए जब अयोध्या की जनता ने यह मांग करी की अग्नि परीक्षा के परिणाम को निरस्त करके मात्र भौतिक तथ्यों के आधार पर सीता पर निर्णय होना चाहिए तो ‘श्री राम ने अग्नि परीक्षा के परिणाम को निरस्त करते होए सीता को त्याग दिया!
‘यह भी आदेश पारित करा कि अग्नि परीक्षा किसी तरह से भी किसी स्त्री की शुद्धता, सतित्व्, व् चरित्र का प्रमाण नहीं दे सकती, इसलिये भविष्य मैं उसके प्रयोग को अपराध माना जायेगा, तथा अग्नि परीक्षा और उसके इस दुरूपयोग को सदा के लिये अधर्म घोषित कर दिया !’ पढीये : सीता का त्याग राम ने क्यूँ करा... सही तथ्य
कष्ट इस बात का है कि इतने स्पष्ट आदेश के बाद भी किसी तरह से वाल्मिकी रामायण से इस तथ्य को निकाल दिया गया ताकी स्त्रियों का शोषण जारी रहसके और अग्नि देव और श्री राम के बीच का प्रसंग जोड़ दिया गया, जिसपर सदैव प्रश्न चिन्ह लगा रहे और श्री राम की अनावश्यक आलोचना होती रहे |
श्री राम से पूर्व धर्म, और राज्यों का उपयोग स्त्री जाति, तथा मनुष्य की नई प्रजाति वानर के शोषण के लिए हो रहा था, ऐसे मैं अवतरित पुरुष के विशेष उत्तरदायित्व हो जाते हैं, क्यूँकी बार बार तो वे अवतार लेंगे नहीं, इसलिए सीमित समय मैं ज्यादा से ज्यादा कार्य करना होता है| अब एक तरफ श्री राम ने प्रमुख कार्य ;
- जैसे की अग्नि परीक्षा को अधर्म घोषित करना,
- और वानरों का मानव समाज मैं उपनिवेश का मार्ग
सुनिश्चित कर दिया, लकिन शासकीय स्तर पर उसको कार्यान्वित करना भी महत्वपूर्ण था, और मेरी समझ मैं ज्यादा अधिक महत्वपूर्ण था, जिसके लिए राम अयोध्या का राज्य नहीं छोड़ सकते थे |
स्पष्ट है आदेश देने और शासकीय स्तर पर कार्य को संतोषजनक तरीके से करने मैं बहुत अंतर होता है और फिर शासकीय स्तर पर अनेक बाधाएं आती हैं जिनसे निबटना होता है, और समय भी लगता है| स्वाभाविक है श्री राम अयोध्या का राज नहीं छोड़ सकते थे | माता सीता से बहुत पहले उनका समाज सुधार जैसे आदर्शो से विवाह हो चूका था |
एक और आवश्यक धर्म आप सब अवश्य समझ लीजिये कि जबभी घोर अधर्म के समय धर्म की स्थापना मैं जो भी लोग लगते हैं, वे विशेष कष्ट भोगते हैं, उसका कोइ विकल्प नहीं है, और पूरा इतिहास जो आप जानते हैं वोह भी यही प्रमाणित करता है| चाहे अभी ताज़ा इतिहास सिख गुरुओं का देख लें, आज़ादी के दिवानो का देख लें, या और पीछे चले जायं !
स्वाभाविक है कि ऐसे मैं जब नारी के उत्थान का लक्ष्य लेकर माता सीता आगे बड़ी तो उन्हे भी विशेष कष्ट सहने पड़े |
सीता और राम ने मिल कर समाज हित में त्याग करें और विशेष कष्ट सहे !
कष्ट इस बात का नहीं है कि श्री राम और माता सीता ने विशेष कष्ट सहे, कष्ट इस बात का है कि कुछ धार्मिक लोग जिनपर इस इतिहास को इस समाज तक पहुचाने का उत्तरदायित्व था उन्होंने गलत इतिहास समाज को दिया ताकी श्री राम और माता सीता के कष्टों से जो सही सन्देश मिल रहा था, उसका लाभ समाज तक ना पहुचे |
जय श्री राम, जय माता सीता !!!
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