जय माँ दुर्गे !!! आप ही इस पृथ्वी की उत्पत्ति का कारण हो, आप ही के कर्म और परिश्रम से इस पृथ्वी का विकास इस सुन्दरता से हुआ की मानव और अन्य श्रृष्टि इसका भोग कर रही है , आप ही शक्ति हो, आप ही से इस पृत्वी पर तप और यज्ञ संभव है क्यूँकी तप और यज्ञ बिना कर्म के संभव नहीं है, जिसकी प्रेरणा आप से मिलती है| आप ही ने आरंभिक काल मैं समस्त असुरो का विनाश करके उचित समन्वय सुर और असुर का पृथ्वी पर स्थापित करा, जिससे पृथ्वी मैं स्थिरता आ गयी और पृथ्वी श्रृष्टि के पोषण के लिए उपयुक्त हो पाई |
दुर्गा सप्तशति माँ दुर्गा की पूजा, व्रत, उपासना की पाठ्यपुस्तिका है, जिसका सनातन धर्म मैं और पूरे हिन्दू समाज मैं विशेष महत्त्व है | कितना विशेष है यह इस बात से समझ मैं आ जाएगा कि साल मैं दो बार नौ नौ दिन के धार्मिक कार्यकर्म होते है दुर्गा माँ को प्रसन्न रखने के लिए, जागरण होते हैं, नृत्य. पूजा पाठ से देवी को प्रसन्न करने का प्रयास होता है |लकिन दुर्गा सप्तशति, मात्र उपासना की पाठ्यपुस्तिका नहीं है, यह कोडित भाषा मैं पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई, और पृथ्वी के आरंभिक विकास मैं स्वंम पृथ्वी के अंदर कितनी हलचल थी उसका उल्लेख है, तथा किस तरह से उस हलचल पर काबू पाया गया इसका वर्णन है |प्रथम अध्याय मैं किस तरह से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई इसका उल्लेख है, और यह भी स्पष्ट करा गया है की यह कार्य सृजन से नहीं हुआ, बल्कि प्राकृतिक विकास इसका कारण है | सृजन के लिए आवश्यक है कि इश्वर शक्तिशाली होगा , और चुकी ईश्वरी शक्ती तो अनियमित है, इसलिए पलक झपकते ही कार्य संपन्न,
लकिन प्राकृतिक विकास मैं यह संभव नहीं है :-
श्री विष्णु मधु और कैटभ को युद्ध मैं परास्त नहीं कर पाए, और फिर समझोता करके उन्हें मारा | मारा का अर्थ है कि सक्रियता कम कर दी ! मधु और कैटभ दो सक्रीयाए उल्का हैं, जो गहरे कणिक उल्काओ के बादलो के समूह के बीच से निकलते हुए उनकी गाती कम हो गयी, टकरा गयी, मिल गयी, और फिर उनकी सक्रियता कम हो गई, पृथ्वी का कोर बन गया!
लकिन इसके बाद भी पृथ्वी रहने लायक नहीं थी| असुरो का उसपर कब्ज़ा था, जिनसे देवी माँ को अनेक युद्ध करने पड़े, फिर उचित समन्वय सुर और असुर के बीच बन पाया |
ॐ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम् ।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः ।। १।।
ब्रह्मोवाच ।। २।।
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका ।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिताः ।। ३।।
अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः ।
त्वमेव सा त्वं सावित्री त्वं देवि जननी परा ।। ४।।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत् सृज्यते जगत् ।
त्वयैतत् पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ।। ५।।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ।। ६।।
ब्रह्माजी ने कहा ॥२॥
देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा, तुम्हीं वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं।
तुम्हीं जीवदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार - इन तीन अक्षरों के रूप में तुम्ही स्थित हो ॥३॥
तथा इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्ही हो।
तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री, तुम्हीं समस्त देवीदेवताओं की जननी हो।
(पाठान्तर : तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री, तुम्हीं वेद, तुम्हीं आदि जननी हो) ॥४॥
तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो, तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है।
तुम्हीं सबका पालनहार हो, और सदा तुम्ही कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। ॥५॥
हे जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो और पालनकाल में स्थितिरूपा हो।
हे जगन्मयी माँ! तुम कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।॥६॥
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