पृथ्वी का कोर दो उल्का या क्षुद्र ग्रह, या अधबने गृह से बना है~~पुराणिक इतिहास यह स्पष्ट बताता है कि दो असुर, मधु और कैटभ श्री विष्णु के कान के मैल से पैदा हुए, उपद्रवी हो गए और अंत मैं भगवान् विष्णु ने उन्हें अपनी जांघ पर लिटा कर मारा, और वही पृथ्वी का मूल भाग है |
उस समय श्री विष्णु शीर सागर मैं शेषनाग पर लेटे हुए थे और गहरी निंद्रा मैं थे | कथा के संकेतो पर हम यदि जाए तो स्पष्ट है कि पिघले हुए धातुओ के सागर मैं एक भंवर से यह दोनों उल्का अंतरिक्ष मैं पहुच गयी |
सागर में भंवर, उपर दूर से देखो, तो कान का पर्दा जैसा ही प्रतीत होती है |यहाँ असुर का अर्थ है वोह जो कि मानव नहीं है, अन्य जीव की परिभाषा मैं भी नहीं आते है, लकिन स्थिर भी नहीं हैं, और सदा उनमें बदलाव होता रहता हो | श्री विष्णु ने उनको मार कर उनको पर्याप्त स्थिरता दी और उन दोनों के शरीर ही पृथ्वी का कोर(मूल) भाग है |
नोट:कुछ विज्ञानिक इस विषय को ज्यादा तूल देते हैं कि यह उल्का है या क्षुद्र ग्रह | मेरे विचार से यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है ~~साधारण व्यति को समझ मैं आ गया, यह अधिक महत्वपूर्ण है|
यह सूचना भूविज्ञान से सम्बंधित कमसे कम हिन्दू छात्रों के पास होनी आवश्यक है, क्यूंकि विज्ञानिको के पास अभी भी पृथ्वी के बनने से सम्बंधित जानकारी बहुत कम है, और बहुत शोघ होना है | यहाँ पर असुर शब्द का प्रयोग बहुत ज्यादा रासायनिक प्रतिक्रियाओं से सक्रिय उल्का(meteorite) के लिए करा गया है, तथा यह दो सक्रिय उल्का(meteorite), कम गती से टकरा कर ‘काफी कुछ’ स्थिर हो गयी, और चुकी हर सकारात्मक कार्य इश्वर की कृपा ही है, इसलिए यह मधु और कैटभ से सम्बंधित कथा है|
लकिन पुराणिक कथा से इश्वर पर आस्था हो, यह भी उद्देश है, इसलिए कथा को आप कितना सांकेतिक मानते हैं, कितना वास्तविक यह आप पर निर्भर है | ध्यान रहे कथा के पीछे जो विज्ञान है, वोह पूरी तरह सच है !
कथा इस बात से आरम्भ होती है कि श्री विष्णु योग निंद्रा मैं हैं, और इसी योगनिंद्रा मैं श्री विष्णु की नाभी से कमल का फूल बाहर आता है, जिसमें ब्रह्मा जी बैठे हुए हैं और यह विचार कर रहे हैं कि ब्रह्माण्ड का निर्माण कैसे करा जाए |
हमारे यहाँ ब्रह्माण्ड शब्द का प्रयोग:
• सौर मंडल, • गैलेक्सी, • सम्पूर्ण और सारी गैलेक्सीयों के फैलाव
तीनो के लिए प्रयोग हो रहा है, इसलिए संस्कृत विद्वानों को इस उलझन को दूर करना चाहीये |
ब्रह्मा जी को देख कर दोनों असुरु ने ब्रह्मा जी को युद्ध के लिए ललकारा; तब ब्रह्मा जी ने श्री विष्णु को जगाने का प्रयास करा , लकिन वे गहरी निंद्रा मैं थे | ब्रह्मा जी को लगा के वे इन दोनों असुरो से युद्ध नहीं कर पायेंगे, इसलिए निंद्रा देवी की स्तुत्ति करके विष्णु जी को जगाया | विष्णु जी भी इन दोनों असुरो के साथ हज़ारो वर्ष तक युद्ध करते रहे, लकिन परास्त नहीं कर पाए | बाद मैं उन्हें आदि देवी या आदि शक्ति का सहारा लेना पड़ा, जिन्होंने श्री विष्णु को बताया कि यह दोनों असुर को उन्ही का वरदान प्राप्त है, और जब तक वे स्वम अपनी इच्छा से मरने के लिए तैयार नहीं हो जायेंगे, मारे नहीं जायेंगे|
श्री विष्णु को समझ मैं आ गया क्या करना है | उन्होंने दोनों असुरो की तारीफ करी, जिससे प्रसन होकर असुरो ने विष्णु जी से वर मांगने को कहा , और विष्णु जी ने वर मैं यह माँगा कि दोनों असुर उनके हाथो से मारे जाएं | दोनों ने यह इच्छा व्यक्त करी कि वे यह नहीं चाहते कि उनका रक्त छीर सागर मैं जाय, तो विष्णु जी ने उनको अपनी जांघ पर लिटा कर मारा |
चुकी सारे पुराण कोडित हैं, तो यह सारे संकेत बहुत स्पष्ट बताते हैं कि =>
- पृथ्वी का जन्म दो सक्रिय उल्का को मिलाकर हुआ है, तथा उसके बाद उनमें और छोटी छोटी उल्का का मिलन होता रहा और पूर्ण पृथ्वी बनगयी |
- आज के विज्ञानिक अँधेरे मैं तीर चला रहे हैं की एक उल्का की छोटी छोटी उल्काओ के मिलन से संवृद्धि(Accretion) होई और पृथ्वी बनी, जो की गलत है| चुकी हमारे संस्कृत विद्वानों ने यह सूचना समाज तक नहीं पहुचने दी, ताकि धर्मगुरु समाज का शोषण कर सके, हिन्दू छात्र इसपर शोघ नहीं कर पा रहे हैं, जो की संस्कृत विद्वानों और धर्मगुरुओ की संकीण सोच का परिणाम है|
- मधु और कैटभ, जो कि बहुत ज्यादा रासायनिक प्रतिक्रियाओं से सक्रिय उल्का(meteorite) थी, को ‘श्री विष्णु ने मार दिया’ का सांकेतिक अर्थ है कि दोनों उल्का आपस मैं मिल कर स्थिर हो गयी, तथा सक्रियता कम हो गयी |
- श्रृष्टि रचेता ब्रह्मा जी हैं और पालनकरता श्री विष्णु; यह सन्देश हिन्दुओ के लिए विशेष महत्त्व रखता है कि पृथ्वी के जन्म को पालनकरता श्री विष्णु का आशीर्वाद है |
- उपरोक्त पुराणिक कथा यह स्पष्ट करती है की सौर्य मंडल को बनने मैं हज़ारो वर्ष लगे, तथा उस समय ऐसी संभावना से इनकार नहीं करा जा सकता कि एक घनी गैस समूह से गुजरते हुए दोनों उल्काओ, मधु और कैट्भ की गति कम हो गयी तथा आपस मैं टकरा कर एक हो गए | संभव है इन्ही घने गैस समूह से गुजरते हुए पृथ्वी ने अपने उपरी छाल, जो की अलग है, उसके लिए सामग्री एकत्रित करी|
- यह भी बात समझने की है कि श्री विष्णु इश्वर है, उनके लिए क्या कुछ संभव नहीं है, फिर भी हज़ारो वर्ष लगे, परन्तु विजय नहीं मिली | यह बात दूसरी है कि स्पष्टीकरण दे दिया गया कि दोनों असुर को वरदान मिला था
अब बताईये, कब तक इस सत्य को नक्कारेंगे कि सनातन धर्म प्राकृतिक विकास पर विश्वास नहीं करता, सर्जन पर करता है ? अगर सर्जन पर आस्था होती तो तुरंत दोनों असुरो को मिला कर पृथ्वी बन जाती, लकिन ऐसा नहीं हुआ |
फिर से,... यह विषय महत्वपूर्ण है क्यूँकी पूरी स्पष्टा से यह बताया जा रहा है कि श्री विष्णु, हज़ारो साल प्रयास करने पर भी असुरो को नहीं हरा पाए, अथार्त, सनातन धर्म सर्जन पर नहीं प्राकृतिक विकास को मानता है|
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