Monday, March 30, 2015

भारतीय शिक्षा प्रणाली तथा सामाजिक मूल्यों की शिक्षा मैं आभाव का कारण

भारतीय समाज को यह बताया गया है कि अंग्रेजो के ज़माने मैं एक मेकैउले थे जिन्होंने यह कहा था कि भारत मैं ऐसी शिक्षा प्रणाली पर्याप्त है जो निचले स्तर के सरकारी कर्मचारी उपलब्ध करा सके | 
जब भी शिक्षा की बात होती है, हम इसी बात को लेकर बैठ जाते है | 
विश्वास कीजिये हमारी शिक्षा प्रणाली बहुत बुरी नहीं है, हां सुधार की गुंजाईश उसमें भी है | 

सत्य यह है की वर्तमान शिक्षा प्रणाली अच्छी नहीं है, व्यापक सुधार की आवश्यकता है, लेकिन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से बहुत बहुत अच्छी है !

लकिन वोह सुधार विद्यार्थी को आज के परिपेक्ष मैं रोजगार, और समाज की अवश्यक्ताओ के प्रति अधिक उपयोगी बनाना है | उसके लिए सूचना और आज के उपकरणों की जानकारी और निपुर्नता भी महत्वपूर्ण है !

सामाजिक मूल्यों की शिक्षा सदा धर्म से मिली है , और मिलेगी !

यह पोस्ट सामाजिक मूल्यों की शिक्षा पर विचार व्यक्त करेगी, तथा हिन्दू समाज को इस शिक्षा मैं कहाँ कमी है, इसपर चर्चा करेगी |

क्या चाहते हैं हम धार्मिक शिक्षा से ? समाज मैं भाईचारा और एकजुटता !

लकिन महाभारत के पश्च्यात यह संभव नहीं हो पाया, मात्र २३०० वर्ष पूर्ण चाणक्य ने इसका प्रयास करा, पूरी सफलता भी मिली, पहली बार राष्ट्रीयता का नारा ‘जय माँ भारती’ के नाम से दिया गया, लकिन चाणक्य के जाने के बाद संस्कृत विद्वानों और धर्मगुरुओ ने इसको दफना दिया |

निजी स्वार्थ ने सामाजिक मूल्यों और राष्ट्रीयता को दबा दिया, और बिखरा हुआ समाज करीब ८०० वर्षो तक विदेशी इस्लामिक शासको का और बाद मैं अंग्रेजो का गुलाम रहा |

लकिन इसी बीच एक प्रयास समाज को सुधारने के लिए और बहारी हमले से सुरक्षित करने का शुरू हुआ | उस समय विदेशी हमलावर अफगानिस्तान के मार्ग से ख्य्बर पास (KHYBER PASS) से आते फिर भारत मैं आ कर पालतू जानवरों को और काम करने वाले आदमियों, बच्चो को, अय्याशी के लिए औरतो को बाँध कर ले जाते थे | और ऐसे हमले सैकड़ो हुए , इतिहास मैं सिर्फ बड़े हमलो का उल्लेख है |

फिर से ; 

ऐसे हमले सैकड़ो हुए , इतिहास मैं सिर्फ बड़े हमलो का उल्लेख है |

इसको रोकने के लिए अमृतसर शहर का निर्माण हुआ, और वहां स्वर्ण मंदिर की स्थापना हुई | एक चुनौती दी गयी हमलावरों को, कि जिसकी औकात है, आओ और लूट कर ले जाओ| ख्य्बर पास (KHYBER PASS) से हमले होने रुक गए |

ध्यान रहे; जब से स्वर्ण मंदिर का निर्माण हुआ है, ख्य्बर पास के रास्ते लूट मार बंद होगई !
किसने बनवाया यह स्वर्ण मंदिर? 
क्यों एक अलग से कौम बनी उस समय जिसका नाम सिख रखा गया,...?

क्यों सिख गुरुओ ने, जिन्होंने स्वर्ण मंदिर की स्थापना करी, उनको सबकुछ सनातन धर्म से हट कर करना पड़ा, तथा सनातन धर्म के धर्मगुरु और उस समय के संस्कृत विद्वान इसका समाधान सनातन धर्म के अंदर नहीं खोज पाए ?

इन सब प्रश्न का उत्तर क्या कभी आपने पुछा, या सिर्फ भावनात्मक बात गुरु ने कही कि गुरुकुल शिक्षा अच्छी है, और आपने मान ली |

क्या कारण है कि जिन्होंने ने भी मार्ग सनातन धर्म मैं समाज हित मैं सोचे, और सफल रहे, वे सनातन धर्म के अंग होकर भी अलग हुए, यह हमसब को सोचना होगा | उसमें बौध धर्म के लोग हैं सिख धर्म के लोग भी हैं ?

सिखों का उद्धारण इसलिए दिया गया कि नैतिकता और सामाजिक मूल्यों की शिक्षा का केंद्र सदेव धर्म ही रहा है, और आज तो बहुत साफ़ दृष्टि से इस बात को विश्व मैं आप देख भी सकते हैं, अनुभव भी कर सकते हैं |
हिन्दुओ मैं इतना बिखराव क्यूँ है ? क्यूँ हिन्दू एकजुट नहीं हो पाते, अपने अधिकार के लिए नहीं लड़ पाते? 
इसका कारण स्पष्ट है, हमारी धार्मिक शिक्षा मैं कमी | संभव है कि कमी शब्द पर्याप्त ना हो, क्यूँकी हमारी धार्मिक शिक्षा हमें गुलाम बना कर रखना चाहती है, और इस सत्य को समाज को स्वीकार करना आसान नहीं है !
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चलिए एक सुझाव जो दूसरी पोस्ट मैं दिया गया है उसको यहाँ दोहराते है, उसी पोस्ट के शब्दों मैं |

"१००० वर्ष की गुलामी ने हमें कर्महीन बना दिया है, कि हम गलत को सही कह सकते हैं, लकिन सत्य के लिए लड़ नहीं सकते; और इसी लिए भ्रष्टाचार और अनेक अत्याचार बढ़ रहे हैं|

"हमें भावनात्मक बाते ही पसंद आती हैं; क्यूँकी उसमें दुसरे की बुराई करके संतुष्टि मिल जाती है| अपने को बदलने का अर्थ है यह स्वीकार करना कि सारी कमियां स्वंम से शुरू होती हैं; यह तो हमसबको १००० वर्ष की गुलामी के संस्कार से नहीं मिला|
"प्रश्न सिर्फ इतना है कि दुबारा गुलाम बनाना है, या हिंदू समाज को कर्मठ बनाना है?
"और कर्मठ बनाने का अभियान, स्वंम से शुरू होता है !
"इस विषय पर ध्यान दे और चर्चा करें >>>

कर्महीन हिंदू समाज को जब तक हम कर्मठ हिंदू समाज नहीं बना पायेंगे कुछ हासिल नहीं होगा!

कृप्या फिर से समझ लें:

सनातन धर्म मैं अवतार का स्वरुप, कम विकसित और अशिक्षित समाज के लिए, अलोकिक शक्ती की चादर के साथ होता था, जैसा की आजादी से पहले था 
और... 
विकसित , शिक्षित समाज के लिए, बिना अलोकिक शक्ती और चमत्कारिक शक्ती के, जैसा की आजादी के बाद के समाज के साथ होना था, परन्तु नहीं हुआ|
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एक उद्धरण उपयुक्त रहेगा:
एक अबोध बालक, या नवजात शिशु को संभालने के लिए मात्र भावनात्मक बातो और व्यवाहर का प्रयोग करा जाता है...

जैसा की हिंदू समाज जब गुलाम था, तो उस समय के हमारे धर्म गुरुजनों ने धर्म से कर्म भाग घटा कर, समाज को पूरी तरह से भावनात्मक बना कर दिया,

ताकि सर झुका कर ही सही, पूरा हिंदू समाज धर्म परिवर्तन से तो बच सके...
इस बात के सारे प्रमाण उपलब्ध हैं....

स्वंम कर्मवीर श्री कृष्ण को गोपियों के साथ रास रचाते हुए दिखा दिया...
परन्तु,
एक पढ़े लिखे युवक को कर्म की शिक्षा दी जाती है, और उसे प्ररित करा जाता है की वोह भावनात्मक सोच से कोइ निर्णय ना लें ...
ठीक उसी तरह से भक्ति और कर्म का उचित अनुपात आजादी के बाद होना था, जो की नहीं हुआ !

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