Thursday, December 27, 2012

एक सन्देश..क्यूँ पालन कारक स्वरुप ईश्वर का अवतरित होता है?

यह एक ऐसा विषय है जिसके बारे मैं पता तो सबको है , लकिन ऐसा क्यूँ इसके बारे मैं कभी किसी ने गंभीरता से सोचने का प्रयास नहीं करा| 
नई श्रृष्टि का आरम्भ होता है सतयुग से, और चुकी सतयुग मैं पुरानी श्रृष्टि के कुछ लोग भी आ जाते हैं , मनु के साथ , तो सतयुग मैं नई श्रृष्ट के साथ साथ पुराने युग के मनुष्य, जिनमें राक्षस , अथार्थ मनुष्य का मॉस खाने वाले . और आर्य(आर्य वास्तव मैं राक्षस शब्द के रा को उल्टा कर के बनाया गया है , चुकी राक्षस की प्रवति आम मनुष्य से उलटी थी) भी सम्मलित हैं| 
आर्य और राक्षस के सतयुग मैं मौजूद होने से श्रृष्टि को लाभ भी होता है और हानि भी| पढीये : कलयुग का अंत..एक नए कल्प का प्रारम्भ और मत्स्य अवतार 

हिंदू मान्यता के अनुसार, इश्वर, श्रृष्टि की सुचारू रूप से प्रगति के लिए , तीन अलग स्वरुप मैं सहायक होते हैं| प्रथम तो श्रृष्टि रचेता, यानी ब्रह्माजी, जिनका दईत्व, श्रृष्टि की रचना है , दूसरा पालन-करता श्री विष्णु, जिनका उत्तरदायित्व है कि, भले ही श्रृष्टि रचना मैं खोट हो या न हो, भले ही श्रृष्टि स्वंम ही विनाश की और बढ़ने का प्रयास करे , श्रृष्टि को प्रगति की और ले जाने का बार बार प्रयास करें | तीसरा संघार-करता इश्वर शिव , जिनके पास सबसे महत्वपूर्ण श्रृष्टि की प्रगति का कार्य है , और वह है श्रृष्टि का प्रगति को दृष्टि मैं रख कर, संघार| इसे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए कहा जा रहा है क्यूँकी, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि संघार का कार्य त्रुटि-रहित होना चाहिए|

श्रृष्टि का संघार अनेक कारणों से होता है , जिसमें प्रमुख कारण है , स्वाभाविक रूप से प्रौढ़ और कमजोर हो कर अंत की और अग्रसर होना, और उसी से अंकुरित हो कर नई श्रृष्टि की रचना, जो की नए समीकरणों मैं आसानी से प्रगति कर सके| यह श्रृष्टि का स्वाभाविक विनाश है प्रगति की और अग्रसर होने का | इसके अतिरिक्त और अनेक कारण भी है जो की श्रृष्टि का निरंतर विनाश करते हैं , जिसमें प्राकृतिक विपदा, युद्ध , रोग , द्वेष मुख्य कारण हैं| ऐसे मैं विनाश निष्पक्ष हो , इसके लिए इश्वर का स्वरुप कैसा होना चाहिए, इसका उपयुक्त उत्तर आपको केवल सनातन धर्म ही दे सकता है | 

इश्वर शिव पूरी तरह से वैरागी हैं , उनकी स्वंम की कोइ इच्छा नहीं है , वे अपने पास कुछ नहीं रखते|मान्यता है कि उनके पास रहने के लिए कुटिया तक नहीं है , पहने के लिए वस्त्र नहीं है , इसलिए मरे हुए जानवर की खाल से शरीर ढक लेते हैं , और चुकी शमशान की राख पर समाज का अधिकार नहीं होता, वे वोह राख अपने शरीर पर लपेट लेते हैं , भिक्षा मांग कर पेट भरते हैं |तो ऐसे वैरागी, निष्कलंक इश्वर ही संघार का कार्य कर सकते हैं|

इस विस्तार से विवरण का उद्देश यह था कि यह बात समझ ली जाय कि श्रृष्टि-रचेता और श्रृष्टि-विनाशक उस कठोर दईत्व को नहीं संभाल सकते जो की समय समय पर विनाश मार्ग पर बढ़ती होई श्रिष्टी को दिशा देने के लिए आवश्यक है | यह भी समझ लें की , इश्वर सर्व शक्तिमान है कि नहीं, इसपर आप चर्चा कर सकते हैं , लकिन सनातन धर्म इस बात को मानता है कि स्वंम श्रृष्टि-पालनकर्ता श्री विष्णु , पृथ्वी पर समय समय पर अवतरित होते रहते हैं , श्रिष्टी को कठोर परिस्थितियों से निकाल कर प्रगति की और ले जाने के लिए |

सनातन धर्म, पृथ्वी के विकास का कारण, अन्य धर्मो की तरह सृजन(CREATION) को नहीं, क्रमागत उन्नति(EVOLUTION) को मानता है(पढीये: पृथ्वी का विकास.. सृजन या क्रमागत उन्नति), इसीलिये सर्व-शक्तिमान प्रभु श्री विष्णु अपने लोक मैं बैठ कर सुधार नहीं लाते , वे पृथ्वी पर अवतरित होते हैं , और आवश्यक मार्ग-दर्शन प्रदान करते हैं | 

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