नई श्रृष्टि का आरम्भ होता है सतयुग से, और चुकी सतयुग मैं पुरानी श्रृष्टि के कुछ लोग भी आ जाते हैं , मनु के साथ , तो सतयुग मैं नई श्रृष्ट के साथ साथ पुराने युग के मनुष्य, जिनमें राक्षस , अथार्थ मनुष्य का मॉस खाने वाले . और आर्य(आर्य वास्तव मैं राक्षस शब्द के रा को उल्टा कर के बनाया गया है , चुकी राक्षस की प्रवति आम मनुष्य से उलटी थी) भी सम्मलित हैं|
आर्य और राक्षस के सतयुग मैं मौजूद होने से श्रृष्टि को लाभ भी होता है और हानि भी| पढीये : कलयुग का अंत..एक नए कल्प का प्रारम्भ और मत्स्य अवतार
हिंदू मान्यता के अनुसार, इश्वर, श्रृष्टि की सुचारू रूप से प्रगति के लिए , तीन अलग स्वरुप मैं सहायक होते हैं| प्रथम तो श्रृष्टि रचेता, यानी ब्रह्माजी, जिनका दईत्व, श्रृष्टि की रचना है , दूसरा पालन-करता श्री विष्णु, जिनका उत्तरदायित्व है कि, भले ही श्रृष्टि रचना मैं खोट हो या न हो, भले ही श्रृष्टि स्वंम ही विनाश की और बढ़ने का प्रयास करे , श्रृष्टि को प्रगति की और ले जाने का बार बार प्रयास करें | तीसरा संघार-करता इश्वर शिव , जिनके पास सबसे महत्वपूर्ण श्रृष्टि की प्रगति का कार्य है , और वह है श्रृष्टि का प्रगति को दृष्टि मैं रख कर, संघार| इसे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए कहा जा रहा है क्यूँकी, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि संघार का कार्य त्रुटि-रहित होना चाहिए|
इश्वर शिव पूरी तरह से वैरागी हैं , उनकी स्वंम की कोइ इच्छा नहीं है , वे अपने पास कुछ नहीं रखते|मान्यता है कि उनके पास रहने के लिए कुटिया तक नहीं है , पहने के लिए वस्त्र नहीं है , इसलिए मरे हुए जानवर की खाल से शरीर ढक लेते हैं , और चुकी शमशान की राख पर समाज का अधिकार नहीं होता, वे वोह राख अपने शरीर पर लपेट लेते हैं , भिक्षा मांग कर पेट भरते हैं |तो ऐसे वैरागी, निष्कलंक इश्वर ही संघार का कार्य कर सकते हैं|
इश्वर परुशुराम अवतार तत्पश्चात् राम के रूप मैं क्यूँ अवतरित हुए
No comments :
Post a Comment