समाज में अगर सुधार लाना हो तो विभिन्न प्रकार की समस्याओं से आपको झूझना पड़ता है ; जिन विषय से सावधान आप समाज को करना चाहते हैं, समाज उनको छोड़ने के लिए तत्पर ही नहीं होता | संस्कार शिक्षा आदि अनेक कारण भी हैं, इसके लिए |
बहुत सारे विषय हैं, जिसको समाज प्रमाणित मापदंडो का हवाला देने से आसानी से स्वीकार कर लेता है, लकिन कुछ ऐसे विषय भी हैं, जिनको वोह स्वीकार करने को तेयार नहीं होता है | उसकी सोच, उसकी आदत और उसके संस्कार उन गलती को स्वीकार करने की अनुमति नहीं देता |
उसमें से एक है ‘आदर्शवाद और आदर्श’ का सम्मान, तथा पूरी तरह से यह स्वीकार करना की आदर्श का और शिक्षा/ज्ञान/गुरु का सीधा सम्बन्ध है | यह पूरी तरह से गलत गुलाम मानसिकता प्रदर्शित करती है, जिसको आज के सूचना युग में बदलना आवश्यक है | आसान, अभी तक तो नहीं रहा है, इसलिए आप सबके सहयोग की आवश्यकता है |
सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोगो को संस्कारों के कारण एक आदत हो गयी है कि वोह हर व्यक्ति की छबि उसके काम के अनुरूप, और जो उनलोगों ने सुन और समझ रखा है, उसके अनुकूल देखना चाहते हैं | यानी की मार्केटिंग का असर, पूरी तरह से उनके मस्तिक में घुस गया है | ऐसे लोग ठगे जा सकते हैं, लकिन साहस नहीं कर पायेंगे की एक ईमानदारी से दिया हुआ सन्देश और ‘आदर्शवादी’ परन्तु पाखंडी व्यक्ति’ द्वारा दिया हुआ सन्देश के अंतर को पहचाने | और इतिहास तो झूट नहीं बोलता, कमसे कम पिछले ५००० वर्षो से यही हो रहा है |
क्या हुआ है ऐसा पिछले ५००० सालो में जो इतिहास में तो है, लकिन हम शिक्षा उससे नहीं ले रहे हैं:
1. ठेराव, आर्थिक और सांस्कृतिक,
2. गरीब और महिलाओं का अत्यधिक शोषण
3. शिक्षा सिर्फ और सिर्फ धनवान , जमींदारों, राजघरानो की संतानों के लिए थी
4. महिलाओं को शिक्षा के लिए कोइ प्रोहत्साहन नहीं था,
5. राष्ट्रीयता को जानबूझ कर संस्कृत विद्वानों, धर्मगुरूओ, और राजाओं ने चाणक्य के जाने के बाद दफनाया, तथा उसे कभी भी धर्म नहीं माना
6. इस दौरान अनेक समय भारत के विभिन्न छोटे छोटे राज्य, विश्व स्तर पर अच्छा व्यापार कर रहे थे, धन भी अर्जित कर रहे थे, लकिन उसका उपयोग कभी भी समाज के लिए नहीं हुआ; समाज अनपढ़ , पिछड़ा और शोषित ही रहा |
लकिन आश्चर्य की बात है, जिससे पूरे विश्व से बार बार आय हुए ज्ञानी भी आश्चर्यचकित थे, समाज पिछड़ा और शोषित होते हुए भी शांत था,
फिर से :
समाज पिछड़ा और शोषित होते हुए भी शांत था !
क्या कारण हो सकता है , इस गुलामी की मानसिकता के लिए ?
जी हाँ मुझे यह भी मालूम है कि कुछ लोग कहेंगे की भारतीय स्वभाव से शान्तिप्रिये है , अत: इसे गुलामी ना कहा जाए
मैं उनकी बात पूरी तरह से अस्वीकार कर रहा हूँ; यह गुलामी की मानसिकता किसने दी क्यूँ दी, उसपर पर्दा डालने का प्रयास है !
आप देखेंगे उपर के ६ बिंदु सिर्फ शिक्षा और धर्म से सम्बंधित हैं | धार्मिक शिक्षा, धर्म और शिक्षा से ही समाज की सोच निर्धारित होती है |
“नहीं, मुझे समाज इतना शांतिप्रिय नहीं चाहीये; अगर समाज अपने अधिकारों के लिए लड़ भी नहीं सकता तो प्रजातंत्र बेकार है, आगे समाज की तकदीर” !
जैसा की उपर कहा गया है , उपर के ६ बिंदु सिर्फ शिक्षा और धर्म से सम्बंधित हैं | धार्मिक शिक्षा, धर्म और शिक्षा से ही समाज की सोच निर्धारित होती है |
और उस समय गुरुकुल शिक्षा थी |
महाभारत युद्ध यदि आप इतिहास के परिपेक्ष में इमानदारी से बिना अलोकिक और चमत्कारिक शक्ति के समझेंगे तो आप पायेंगे कि ‘श्री विष्णु अवतार श्री कृष्ण’ और पांडव युद्ध आरंभ के समय ही काफी बड़ी आयु के थे | तथा चाहे अवतार हो या मानव, आयु की निश्चित सीमा होती है | गुरुकुल शिक्षा उस समय पूरी तरह से भ्रष्ट थी , तथा धर्म और धार्मिक शिक्षा के सबसे बड़े महान ठेकेदार आचार्यद्रोण को श्री कृष्ण के कहने पर युधिष्टिर ने अत्यंत गन्दी मौत दी, वोह भी जब, जब द्रोण उनके गुरु थे और उस समय निहत्ते थे, बंदी बनाए जा सकते थे, मारा नहीं जा सकता था |
क्या सन्देश दिया युधिष्टिर और भगवान् श्री कृष्ण ने ? क्या यह आदर्शवाद के विरुद्ध नहीं था, जिसको भावी संस्कृत विद्वानों ने हेर-फेर करके द्रोण को वेद ज्ञाता बता कर बदल दिया ?
अगर संस्कृत विद्वानों ने हेर-फेर करके द्रोण को वेद ज्ञाता ना बताया होता, और युधिष्टिर और भगवान् श्री कृष्ण का उस समय की शिक्षा और आदर्शो के विरुद्ध जो सन्देश था, समाज तक पहुचने दिया होता, तो क्या भारत की पिछले ५००० वर्षो में इतनी दुर्दशा होती ?
इतिहास से हमें शिक्षा लेनी चाहीये, जो हम नहीं ले रहे है, वोह भी कारण है गुलाम मानसिकता . पुराने आदर्शो को ना छोड़ना , तथा संस्कृत विद्वानों द्वारा हेरा-फेरी | यह भी कह सकते हैं की साहस ही नहीं है , क्यूंकि इतिहास का निष्कर्ष तो झुटलाया नहीं जा सकता है|
इतिहास से हमें शिक्षा लेनी चाहीये, जो हम नहीं ले रहे है, वोह भी कारण है गुलाम मानसिकता . पुराने आदर्शो को ना छोड़ना , तथा संस्कृत विद्वानों द्वारा हेरा-फेरी | यह भी कह सकते हैं की साहस ही नहीं है , क्यूंकि इतिहास का निष्कर्ष तो झुटलाया नहीं जा सकता है|
लकिन मुझे तो शिक्षा लेनी है, समाज को भी बताना है ! आदर्श और पाखण्ड का स्पष्ट दिखने वाला सम्बन्ध सबको बताना है | इसलिए आदर्श से मेरा कोइ सम्बन्ध नहीं है | अगर में कुछ कह रहा हूँ, या शिक्षा दे रहा हूँ तो उसको प्रमाणित मानको या मापदंडो के सहारे आकलन करीये, मेरी बात मत मानीये | मुझको आदर्श की तराजू में मत तोलिये |यही श्री कृष्ण का द्रोण वध से सन्देश था, जो सबतक पहुचना है |
जय श्री कृष्ण !
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