पांडव और कौरव उनसे शिक्षा ले रहे थे, और यदि शिक्षा का समाज हित मैं कोइ योगदान आप मानते हैं, तो नियति एक विश्वयुद्ध की और विश्व को ले जा रही थी, क्यूँकी गुरु द्रोण एक अत्यंत स्वार्थी, नकारात्मक प्रवति के व्यक्ति थे, गुरु बनने लायक उनमें कोइ गुण नहीं थे | इस शिक्षक और उनकी शिक्षा का कितना योगदान विश्वयुद्ध की और विश्व को लेजाने मैं रहा है, इसपर और चर्चा होनी चाहीये |
तो जैसा कि गुरुकुल प्रणाली मैं है, शहर से दूर गुरु द्रोणाचार्य पांडव और कौरव को शिक्षा दे रहे थे, अस्त्र शास्त्र के प्रयोग की शिक्षा भी दे रहे थे, धनुर्विद्या का ज्ञान और प्रशिक्षण भी दे रहे थे|
एकलव्य एक शुद्र परिवार, परन्तु प्रतिभाशाली युवक थे, और उसने गुरु द्रोण के पास जा कर पूरी विनर्मता से और आदर से यह अनुरोध करा कि वे उसको भी शिक्षा दें | गुरु द्रोण ने अपनी असमर्थता व्यक्त करी क्यूंकि वे उस समय कुरुवंश के राज्यघराने के बच्चो को शिक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध थे | यह भी गुरु द्रोण ने कह दिया कि वोह कहीं और से शिक्षा लेले | निराश एकलव्य वहां से चले गए , लकिन धनुर्विद्या मैं निपुर्नता , जो उस युवा का उद्देश था, से मन मैं यह बात बैठ गयी कि यह निपुर्नता उसे गुरु द्रोण से ही मिल सकती है |
एकलव्य ने द्रोण के आश्रम से अलग हट कर अपनी एक कुटिया बनाई और वहां वे संकल्प लेकर और द्रोण को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगे | पुरानी कहावत है कि दृढ निश्चय के आगे सफलता है; बिना किसी गुरु की सहायता के लकिन गुरु द्रोण को अपना गुरु मान कर, तथा उनकी प्रतिमा स्थापित करके वे अभ्यास करते रहे और निपुर्न्नता के शिखर पर पहुच गए |
फिर एक दिन एक घटना घटी; एक कुत्ता बहुत देर तक भौकता रहा, फिर अचानक उसका भौकना बंद हो गया, और कुछ समय बाद वोह कुत्ता द्रोण के सामने था, जिसका मुख वाणों से भरा हुआ था, लकिन इस सुन्दरता से कि उसको कही कोइ चोट भी नहीं लगी | अर्जुन और द्रोणाचार्य अचंभित रह गए; अर्जुन इसलिए कि निपुर्नता के बाद भी वे इस तरह से तीर नहीं चला सकते थे, और द्रोण इसलिए कि यह विद्या उन्होंने अभी तक अर्जुन तक को नहीं सिखाई, और उनकी यह सोच थी कि कोइ और यह विद्या जानता नहीं |
वे कुत्ते के पीछे चलते हुए उस कुटिया तक पहुचे | देखा कि एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास गुरु द्रोण की मिट्टी की प्रतिमा के सामने कर रहा है |द्रोण को देख कर एकलव्य ने उनको प्रणाम करा और पूछने पर यह भी बता दिया कि उनका कोइ और गुरु नहीं है, वे स्वंम ही अभ्यास कर रहे हैं, और उन्होंने गुरु के स्थान पर द्रोण की मिटटी की प्रतिमा स्थापित कर रखी है |
अब अत्यंत नीच और अधार्मिक कार्य द्रोण ने करा ! “तुमने मुझे गुरु मान कर धनुर्विद्या मैं निपुर्नता पाई, क्या मुझे गुरु दक्षिणा नहीं दोगे?”, द्रोण ने एकलव्य से पुछा | “आदेश दीजिये गुरुदेव”, एकलव्य ने कहा; और गुरु द्रोण ने अत्यंत अमर्यादित ढंग से एकलव्य का दाहीने हाथ का अंगूंठा, गुरु दक्षिणा मैं मांग लिया | एकलव्य ने, बिना चहरे पर कोइ भाव लाए, अपने दाहीने हाथ का अंगूंठा काट कर द्रोण को दे दिया और आज्ञा ले कर वहां से चल दिए | एकलव्य अब धनुष नहीं चला सकते थे; वोह बात दूसरी है की इस प्रतिभाशाली युवा ने महाभारत युद्ध मैं पैर से धनुष चलाया और अपना पराक्रम सबसे मनवाया|
ऐसे नीच मानसिकता के व्यक्ति उस समय धर्म के ठेकेदार थे , और कोइ आश्चर्य नहीं कि श्री कृष्ण ने उनको युद्ध भूमि मैं एक अपराधी की जैसे हत्या करी जाति है, उस तरह से मरवाया | मैं निसंकोच कह सकता हूँ कि गुरु द्रोणाचार्य इससे भी बुरी मौत के अधिकारी थे |
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