Monday, May 25, 2015

द्रोणाचार्य वध...गुरु शिष्य परंपरा पर श्री कृष्ण का एक प्रहार

द्रोणाचार्य के बारे मैं यह विख्यात है कि वे सारे वेद के ज्ञाता थे | लकिन वेद का अध्यन करने और वेद का ज्ञान होना दोनों अलग बात है | वेद का ज्ञान व्यक्ति को गलत बातो का विरोध करने के लिए प्ररित करता है, लकिन यह गुरुद्रोण तो गलत और अधार्मिक व्यवाहर अपने पूरे जीवन भर करते रहे |
‘जब जब धर्म कि हानि होती है, मैं पृथ्वी पर अवतरित होता हूँ’, 
यह श्री कृष्ण ने ही कहा है,
और 
धर्म की स्थापना के लिए उन्होंने उचित समझा कि द्रोणाचार्य की युद्ध भूमि पर ही हत्या कर दी जाए, 
जी हाँ 
युद्ध भूमि पर किसी निहत्ये को बंदी ना बनाकर मारने को हत्या ही कहा जाएगा |

फिर से,
श्री कृष्ण पृथ्वी पर अधर्म का नाश करने और धर्म स्थापना के लिए अवतरित हुए थे, और यह उनका ही निर्णय था कि निहत्ये द्रोणाचार्य को बंदी ना बना कर उनका वध कर दिया जाए ! ऐसे क्या दुष्कर्म करे थे इस आचार्य ने? तथा विश्व का इतिहास अनंत समय से इस बात का गवाह है कि युद्ध भूमि पर सदेव नियम तोड़े गए हैं, फिर भी , गुरु द्रोण पांडवो के गुरु थे, उस समय निहत्ये थे, फिर उनको बंदी ना बना कर हत्या क्यूँ ?

पहले तो यह समझ लें कि युद्ध भूमि पर ना तो शत्रु का आदर होता है, ना ही अगर वोह किसी कारण ऐसी स्तिथि मैं आ जाए कि उसको समाप्त करा जा सकता है तो यह मौका गवाया नहीं जाता | 

युद्ध मैं, विशेषकर माहाभारत जैसे युद्ध मैं पूरा विश्व प्रभावित था, और इधर जब भी द्रोण ऐसी स्तिथि मैं आए कि वे अर्जुन द्वारा हताहत हो सकते थे, अर्जुन ने छोड़ दिया क्यूंकि वे उनके गुरु थे| बिलकुल यही गुरु द्रोण ने करा, उन्होंने किसी पांडव भाई को मारने की चेष्टा नहीं करी |

निश्चित ही यह शिक्षा अधूरी रह गयी थी, 
पूरा विश्व प्रभावित था, और पांडव अपने भावनात्मक रिश्ते निभा रहे थे, जो किसी भी दृष्टिकोण से अधर्म था| स्वंम द्रोणाचार्य ने महाभारत युद्ध मैं स्वीकार करा कि वे अर्जुन के सामने नहीं टिक सकते |
अब उस संभावना पर भी सोच लें कि यदि गुरु द्रोण को बंदी बनाया जाता तो क्या होता !

यदि बंदी बना लिया जाता तो स्वंम युधिष्टिर और अर्जुन उन्हें सम्मान के साथ शिविर मैं लाते, उनका उचित आदर करते और फिर रथ भी देते उनको छोड़ कर आने के लिए | चलिए यह भी मान लेते हैं कि इसके बाद वे संभवत: युद्ध भूमि पर ना जाते लकिन रणनीती तो शिविर मैं बैठ कर निर्धारित कर सकते थे, व्यूह रचना के बारे मैं तो कौरवो को बता सकते थे | तो युद्ध मैं एक अत्यंत कुशल शत्रु का खात्मा तो नहीं होता, जो की युद्ध जीतने के लिए आवश्यक होता है !
तो, 
गलत गुरु शिष्य परंपरा ने श्री कृष्ण को मजबूर कर दिया इस निर्णय के लिए| मुझे नहीं मालूम कि शिक्षा मैं कितनी कमी थी, लकिन विशेष कमी थी, क्यूंकि यह तो सत्य है कि पांडव और गुरु द्रोणाचार्य, दोनों गुरु शिष्य परंपरा को अधिक महत्त्व दे रहे थे, और युद्ध से होने वाली शती को कम महत्त्व दे रहे थे, तथा युद्ध मैं विजय के लिए गुरु शिष्य परंपरा को अलग नहीं कर पा रहे थे|

लकिन यह तो एक पहलू हो गया; 

आपको अब तो यह समझ मैं आ जाना चाहीये कि इश्वर जो अवतार लेकर निर्णय लेते हैं, वे हर पहलू से सही होते हैं, जो की अन्य किसी मानव के निर्णय मैं नहीं हो सकता |

द्रोणाचार्य के बारे मैं यह विख्यात है कि वे सारे वेद के ज्ञाता थे | लकिन वेद का अध्यन करने और वेद का ज्ञान होना दोनों अलग बात है | वेद का ज्ञान व्यक्ति को गलत बातो का विरोध करने के लिए प्ररित करता है, लकिन यह गुरुद्रोण तो गलत और अधार्मिक व्यवाहर अपने पूरे जीवन भर करते रहे | 

फिर से, आज तो सारे वेद नेट पर उपलब्ध हैं, और अगर कोइ उन पेजों पर जा कर वेद पढ़ ले और कुछ लोग इस बात का ढिंढोरा पीट दें कि यह वेद का ज्ञाता हो गया तो क्या उस व्यक्ति को सनातन धर्म के समस्त वेदों का ज्ञानी मान लेंगे ?

कुछ उद्धारण द्रोणाचार्य कितने अधर्मी थे, संशिप्त मैं दिए जा रहे हैं :

1. द्रोणाचार्य ने सारे वेद पढ़ें, यह सत्य है, अस्त्र शस्त्र की शिक्षा भी प्राप्त करी, विवाह एक और तताकथित धार्मिक व्यक्ति क्रिपाचार्य की बहन से हुआ, संतान हुई तो संतान के पोषण के लिए गाय की आवश्यकता हुई, तो वे अपने गुरुकुल के सहपाठी और मित्र द्रुपद से सहायता मांगने पहुचे | द्रुपद अब एक राजा थे, घमंड मैं उन्होंने मित्र शब्द के प्रयोग पर यह कह दिया कि मित्रता तो बराबर वालो मैं होती है, जो की पूरी तरह से गलत था , और द्रोण शुब्ध हो गए, वे घर वापस नहीं गए| अपने धार्मिक कर्तव्य परिवार के प्रति भूल गए यह वेद ज्ञाता, और यह सोचने लगे की द्रुपद से कैसे बदला लिया जाए ! फिर से वेद इस बात की शिक्षा नहीं देते हैं कि निर्णय बदले की भावनाओं से लेने चाहीये !

2. चलिए भीष्म ने इनको कौरवो और पांडवो की शिक्षा का भार दे दिया , वहां भी इन्होने अधार्मिक चेहरा दिखाया, जिसका वर्तांत के लिए पोस्ट पढ़ें: द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा मैं माँगना शर्मनाक घटना

3. क्या गुरुकुल शिक्षा प्रणाली इस बात की अनुमति देती है कि शिक्षा देने के उपरान्त गुरु शिष्यों से गुरु दक्षिणा मैं, किसी राजा को बंदी बना कर लाने को कहे ताकि उसका आधा राज्य वोह अपने बदले की प्यास बुझाने के लिए हड़प सके, अपने पुत्र को उस आधे राज्य का राजा घोषित कर सके | यह तो राजनीती, राष्ट्र्नीती और शिक्षा नीती , तीनो मैं अधर्म है ! अवश्य वोह शिक्षा पूरी तरह से गलत थी, भ्रष्ट हो चुकी थी, जिसमें राजा और राज्य दरबार के अतिरिक्त और कोइ निर्णय ले सके कि उस राज्य को किस्से युद्ध करना है |

4. अपने साले क्रिपाचार्य के साथ वे शक्तिशाली धार्मिक व्यक्ति हस्तिनापुत्र के हो गए, और महाभारत से यह एकदम स्पष्ट है कि सारे धार्मिक निर्णय हस्तिनापुर के क्रिपाचार्य और द्रोणाचार्य ही ले रहे थे , जिसमें राज्य का विभाजन दुर्योधन को संतुष्ट करने के लिए एक युद्ध की भूमिका ही थी, और बाद मैं द्रौपदी का चीर-हरण | चीर-हरण के लिए सिर्फ इतना ही कहना है कि घराने की बड़ी बहु के साथ ऐसी घटना इस युग मैं नहीं हो सकती; क्रिपाचार्य और द्रोणाचार्य जैसे धर्म के ठेकेदारों के साथ इस युग मैं क्या व्यवाहर होना है, सब जानते हैं, और इसीलिये इश्वर को अवतरित नहीं होना पड़ रहा है | और इनके सारे धार्मिक निर्णय भी अधार्मिक थे, जिसके कारण महाभारत युद्ध हुआ |

5. युद्ध मैं चक्रव्यूह की रचना, जिसमें युद्ध अधिकाँश सौर्य मंडल मैं हुआ, एक अत्यंत असामाजिक, श्रृष्टि विरोधी निर्णय था, जिससे युद्ध को एक अलग मोड़ दे दिया, और इसका युद्ध उपरान्त परिणाम यह हुआ कि पूरा विश्व रहने लायक नहीं रहा | अभिमन्यु का वध एक घृणित अधार्मिक कृत्य था जिसके नायको मैं द्रोण का भी नाम आता है|

तो यह श्री कृष्ण का ही निर्णय था कि ऐसे कपटी, पाखंडी, अधार्मिक व्यक्ति जो धर्म का ठेकेदार बना हुआ है, उसको जीवित नहीं छोड़ा जा सकता, और यह निर्णय पूरी तरह से उचित था |

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