Friday, June 26, 2015

विद्वानों..समुन्द्र मंथन से अमृत के प्रमाण हैं, फिर शोघ क्यूँ नहीं?

यदि युग की परिकल्पना सत्य पर आधारित है तो उसके विभिन्न चरणों को परिभाषित करने के लिए खगोलीय बिंदु भी होंगे, 
लकिन समाज कि ठगाई और शोषण हो सके, इसलिए संस्कृत विद्वान और धर्मगुरु ना तो उसपर काम कर रहे हैं, और ना-ही यह सूचना हिन्दू समाज तक पहुचने दे रहे हैं, 
ताकि कम से कम हिन्दू समाज की गुलामी की जंजीरे कमजोर ना हों |

कुछ खगोलीय बिंदु का संकेत तो इतना स्पष्ट है कि मेरे जैसा कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी बता सकता है, कि यह खगोलीय बिंदु हैं :-
1. सतयुग के आरम्भ मैं समुन्द्र मंथन ! 
2. शिव का प्रसन्न होकर कामदेव को पुरूस्कार स्वरुप शारीरिक बंधन से मुक्त करना, ताकि श्रृष्टि के, सतयुग के आरम्भ में, बहुमुखी विकास मैं गति आ सके ! 
3. कृष्ण के पुत्र प्रधुम्न के रूप मैं कामदेव को पुन्न: शारीरिक बंधन मिलना, और श्रृष्टि का सिमटना, सिकुड़ना शुरू..! 
4. द्वापर युग के अंत मैं महाभारत युद्ध के दौरान राहू, केतु की गति मैं परिवर्तन, जिसके कारण ज्यध्रत वध में अर्जुन को सहायता मिली ! 
5. कलयुग के अंत मैं राहू, केतु का अंत 
कलयुग के अंत मैं राहू, केतु का अंत, और समुन्द्र मंथन पश्च्यात पुन्न: जीवत होना !

कलयुग के अंत मैं मानव द्वारा करी गयी समस्या और फिर प्राकृतिक आपदा से भीषण बाढ़ आती है, जिससे पूरी पृथ्वी जलमग्न हो जाती है | उस समय चन्द्र अपनी धुरी सूर्य के सन्दर्भ मैं बदलना बंद कर देता है, अथार्त राहू और केतु गति-हीन हो जाते हैं समाप्त हो जाते है | समुन्द्र स्थिर हो जाता है, तथा स्थिर होने के कारण ऑक्सीजन जो समुन्द्र मैं नीचे के जल तक, पानी के साथ पहुचती थी, वोह बंद हो जाती है, सारे समुंद्री जीव जंतु मरने लगते हैं, और धीरे धीरे समुद्र की तलहटी पर पहुचने लगते हैं| समुन्द्र के जल मैं विशाल मात्रा मैं खनिज पदार्थ हैं, जो कि समुन्द्र स्थिर होने पर तलछट(sediment) बन कर नीचे की और बढ़ते हैं|

ध्यान रहे समुन्द्र की औसत आबादी पृथ्वी से नौ गुना है, तो जब जीव, जंतु मरते हैं, और नीचे पहुचते हैं तो अधिकाँश तो तलछट के नीचे दब कर समुन्द्र की नई तलहटी बनाते हैं, तथा भविष्य के लिए खनिज और तेल का सोत्र बनते हैं, तथा कुछ जीव जंतु समुन्द्र तलहटी पर पहुच कर सडने लगते हैं, और चुकी समुन्द्र स्थिर है, तो जो विषैली गैस बनती है, वोह वहीं फसी रह जाती है, और सतयुग के आरम्भ में, समुन्द्र मंथन आरम्भ होने के पश्च्यात विष बन कर वातावरण मैं पहुचता है, और अनेक स्थान पर घातक भी होता है |

उस समय सूचना तो होती नहीं, लोग इश्वर को याद करते हैं, और कुछ समय पश्च्यात वोह रिसाव समाप्त हो जाताहै | कथा बन जाती है कि इश्वर शिव ने स्वंम आकर विष ग्रहण कर लिया | प्राकृतिक घटनाओं का प्रयोग इश्वर पर आस्था के लिए हो, इसमें कोइ बुराई भी नहीं है |

अब आते हैं, अमृत पर, जो समुन्द्र मंथन के पश्च्यात कुछ समय तक पूरे विश्व को प्रभावित करता है ;
पहले तो यह समझ लें कि कोइ मोहनी अमृत का कलश ले कर समुन्द्र के अंदर से नहीं निकलती,
अमृत बरसता है, वातावरण मैं समुद्र को छूकर जो हवा होती है, उससे पूरे विश्व को प्रभावित करता है, और इसके प्रमाण भी हैं |

इसका सबसे बड़ा और अखंडनीय प्रमाण है, सतयुग के आरम्भ में श्रृष्टि का त्रीव गति से विस्तार, जिसमें वन, पशु-पक्षी और विशाल पशु-पक्षी, तथा जल मैं उत्पन्न हुए विशाल जीव| यह सब संभव नहीं है, बिना अमृत के| पूरे विश्व के विज्ञानिक यह मानते हैं कि श्रृष्टि के आरम्भ मैं अनेक विशाल पशु-पक्षी उत्पन्न होते हैं, जो अन्य जीवन को और विशेष कर मानव को नहीं पनपने देते |विशाल होने के कारण, वे सदा भुखे ही रहते हैं, और अंत मैं एक दूसरे को मार कर ही यह समाप्त होते हैं | रामायण मैं भी विशाल पक्षी जटायु का उल्लेख है, जिसकी प्रजाति समाप्त हो रही थी| 

लकिन हमारे संस्कृत विद्वान और धर्मगुरु, उपरोक्त सूचना हिन्दू समाज तक नहीं पहुचने दे रहे हैं | पता नही इनलोगों ने मुसलमानों से पैसा खाया है, या ईसाईयों से, लकिन वे सिर्फ समाज को भावनात्मक बना कर गुलाम बना कर रखना चाहते हैं, और यदि कोइ विदेशी हमारे पुराणों मैं अंकित विज्ञान से सम्बंधित शोग कर लेता है, तो ये लोग ताली बजा देते हैं, और गुलाम हिन्दू समाज भी खुश हो जाता है|

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