‘जो मुझमें ध्यान लगाएगा, वोह कभी दुःख नहीं पायेगा’..ईश्वर वाणी !
बिलकुल सही, लकिन अब यह समझना है की आप ईश्वर में ध्यान कैसे लगाएं?
अनेक मार्ग शास्त्रों में बताए गए है, कर्म, भक्ति, साधना जिनमें प्रमुख है| और अब एक नई सोच, शोषण हेतु उसमें और जुड़ गयी है, गुरु के आश्रम में जा कर सेवा!
तो सबसे पहले भक्ति का अर्थ समझते है, और वैसे भी यह कोइ मुश्किल नहीं है, जिसके लिए आपको किसी गुरु के पास जाना पड़े |
भक्ति का पहला सीधा और साधारण अर्थ है अपने ईश्वर पर आस्था ; जितनी आपकी आस्था है, उतनी ही आपकी भक्ति प्रबल है |
ईश्वर ने आपको परिवार कि सुरक्षा दी है, ताकि, और सुरक्षित अपने आपको अनुभव कर सके आपको बड़ा परिवार, या सामूहिक परिवार भी दिया है | दुःख सुख में एक दूसरे का साथ निभाने के लिए पास-पड़ोस दिया है, एक समाज दिया है, जिसके साथ आप रहते है, अपने और उनके दुःख सुख के साथ फलने फूलने को, आगे बढ़ने को |
तो भक्ति का पहला उद्देश यह है, की अपने आलस्य और कर्महीनता से लड़ते हुए स्वंम इस लायक बने की आप अपना, अपने परिवार, अपने बड़े परिवार, तथा जिस समाज में आप रह रहे है, उसका कुछ भला कर सके |
क्या आप ऐसा कर रहे हैं? ध्यान रहे आप अपने परिवार, अपने सामूहिक परिवार और अपने समाज में बोझ बन कर भी रह सकते हैं, लकिन वोह तभी होता है, जब आपमें आलस्य विशेष हो, और कर्महीनता ने आपको जकड रखा हो |
ईश्वर की भक्ति आपको यह प्रेरणा देती है कि आप बार बार असफल हो रहे हों, तो आप अपने को बदलें और भौतिक तथ्यों, समाज के आदर्शो के अनुसार दुबारा मार्ग सुनिश्चित करें |
ईश्वर की भक्ति यह कभी नहीं कहती या कहेगी की सबकुछ ईश्वर पर छोड़ दो, अपने में सुधार मत करो ; यह नकारात्मक सोच है, भक्ती के विरुद्ध है , विशवास करीए ईश्वर आपकी इस सोच से कभी प्रसन्न नहीं होंगे |
आपका व्यवसाय/नौकरी का स्थान और घर ही आपकी कर्मभूमि है, भक्ती छेत्र है | मंदिर में जा कर जो हम ईश्वर की मूर्ती के आगे पूजा अर्चना करते हैं, या घर पर जो पूजा करते हैं, यदि उनसब से यह प्रेरणा नहीं मिल रही है, जो उपर कहा गया है, तो आलस्य और कर्महीनता ने आपकी भक्ती को भ्रष्ट कर रखा है, और उसका दुष्य-परिणाम हर व्यक्ति को इसी जन्म में भुगतना पड़ता है |
ईश्वर ऐसे व्यक्ति से कभी प्रसन्न नहीं होता जो अपने आलस्य और कर्महीनता के कारण जो असफलता मिल रही हो, उसको यह कह कर अपने को समझा लेता है कि स्वंम भगवान् श्री कृष्ण ने निष्काम कर्म की वकालत करी है , या तकदीर के आगे किसका वश चलता है|
श्री कृष्ण ने निष्काम कर्म की वकालत अवश्य करी है क्यूँकी जीवन एक स्पर्धा भी है| दोड़ में यदि पांच व्यक्ति हैं, और जीत एक ही सकता है, तो बाकी चार तो हारेंगे, इसका अर्थ यह नहीं है की कर्महीन बना जाय | हाँ, निष्काम कर्म का प्रयोग यहाँ हो सकता है, पूरी महनत करी, कौशल भी प्राप्त करा, लकिन इसके बाद भी हार तो बीच बीच में होनी है; जीवन यदि स्पर्धा है तो हर बार आप जीत नहीं सकते | स्वंम श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध में जब परिणाम नहीं आ रहे थे तो मार्ग बदला, कही कही युद्ध के नियम तक तोड़े, लकिन कर्म को प्राथमिकता दी |
‘कर्म ही पूजा है’ यह अकेला एक मात्र सनातन धर्म का नियम है, जिससे ईश्वर प्रसन्न होते है, भक्ती का पूर्ण लाभ आपको मिलता है |
स्वंम को उनत्त करना अपने परिवार, कुटुम्ब, और समाज के लिए लाभकारी बनना तथा, उस समाज के साथ पूरे नगर, देश से जुड़ना और देश हित के लिए कार्यरत रहना उत्तम भक्ती है; यह अति दुर्लभ तप भी है|
ईश्वर शिव हर सत्ययुग के आरम्भ में जब श्रिष्टी वापस प्रलय के बाद आरम्भ होती है, माता पार्वती से विवाह करते हैं, और माता पार्वती प्रकृती है | ऋषि, मुनि इसी भक्ती में लगे रहते है, समाज, देश, प्रकृती और पर्यावरण की रक्षा| इस यज्ञ में आपका योगदान भक्ती को और अधिक कारगर बनाता है |
जय भोले बाबा, जय माँ पार्वती !
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