Friday, August 4, 2017

नीचे दिए तथ्यों के आधार पर निर्णय आप स्वंम करें कि क्या धर्म व्यक्तिगत है?

क्या धर्म व्यक्तिगत है?
उत्तर : बिलकुल नहीं , सिर्फ पूजा पाठ और विधि व्यक्तिगत है |
धर्म सिर्फ सनातन में ही नहीं, पूरे विश्व में व्यक्तिगत नहीं है , और ना ही हो सकता |
नीचे दिए तथ्यों के आधार पर निर्णय आप स्वंम करें !
सिर्फ समाज को बेवकूफ बनाने के लिए और शोषण करने के लिए ही धर्मगुरु, विद्वान बार बार समाज तक इस तरह की गलत सूचना पहुचाते हैं, क्यूंकि शोषण और धंदा तो व्यक्तिगत कहने पर है, ना कि सही सूचना देने पर कि धर्म सामाजिक है !

धर्म का एक उद्धारण देते हैं;

हरा पेड काटना पाप है !
“हरा पेड काटना पाप है” धर्म है, बताईये कहाँ इसमें कुछ भी व्यक्तिगत है ?
यहाँ तक तो है, कि हरियाली कम होती जा रही है, इसलिए हर समाज हरा पेड काटने पर व्यक्ति को दण्डित भी करता है |

शोषण और धंदे की बात करलेते हैं पहले, जिसके लिए आवश्यक है कि धर्म को सोच समझ कर, झूठ में व्यक्तिगत बताया जाए |
१. गुरु के आश्रम में जा कर सेवा करना पर्याप्त है धामिक होने के लिए और ‘उसका’ लाभ पाने के लिए ! 
२. दान का विशेष महत्त्व बताया गया है, और उससे कोइ इनकार भी नहीं कर रहा | लेकिन माध्यम वर्ग के व्यक्ति जिसको सबसे ज्यादा धर्म निभाने की ‘चाहत’ होती है, उसके पास तो सीमित आय होती है, और वोह इस “दान के विशेष महत्त्व” का लाभ मंदिर के नीचे जो भिकारी बैठे होते हैं उनको पैसा दे कर पूरा करता है | कोइ गलती से मंदिर नहीं जा पाए तो उसको बाज़ार में भी भिकारी मिल जायेंगे , और धर्म सम्बन्धी कार्य वोह संपन्न कर लेगा | 
अब इसका ठगाई और शोषण का लाभ धर्मगुरु कैसे ले रहे हैं :
१. गुरु के आश्रम में जा कर सेवा करना मात्र पूजा भक्ति की ही तरह है, वोह ‘धर्म’ की श्रेणी में किसी तरह से नहीं आ सकता | धर्म भौतिक होता है, और समाज को उसको निभाना/मानना होता है | 
२. दान , जैसा कि कहा गया है , अच्छी बात है, लकिन सनातन में तो यह बहुत स्पष्ट है कि दान किसी व्यक्ति, समाज को जीने के मार्ग की कठोरता कम करता है, या सरल करता है | तो प्रार्थमिकता क्या है, कैसे सुनिश्चित होगा कि कौन दान का प्रथम अधिकारी है | इसका निर्णय तो आपको धार्मिक व्यक्ति की परिभाषा ही स्पष्ट करती है, जो नीचे दी है | ध्यान से समझ लें. अन्य धर्म के विपरीत, सनातन में , आप स्वंम से आरम्भ होकर परिवार, बड़े परिवार, फिर समाज , मोहल्ला, शहर , देश इस प्रर्थिमिकता में आगे बढ़ते हैं |
धार्मिक व्यक्ति की परिभाषा :
वह व्यक्ति जो की अपनी उन्नति के लिये, अपने परिवार, तथा अपने पूरे परिवार, तथा जिस समाज, मोहल्लें, या सोसाइटी मैं वो रह रहा है, उसकी उनत्ति के लिये पूरी निष्ठा व् इमानदारी से कार्यरत रहता है वो धार्मिक व्यक्ति है ! ऐसा करते हुए वो समाज मैं प्रगती भी कर सकता है व् घन अर्जित भी कर सकता है ! 
यहाँ यह स्पष्टीकरण आवश्यक है कि निष्ठा व् इमानदारी से कार्यरत रहने का यह भी आवश्यक मापदंड है कि वह व्यक्ति समस्त नकरात्मक सामाजिक बिंदुओं का भौतिक स्थर पर विरोध करेगा , जैसे कि भ्रष्टाचार, कमजोर वर्ग तथा स्त्रीयों पर अत्याचार, पर्यावाह्रण को दूषित करना या नष्ट करना, आदी, ! ऐसा व्यक्ति सत्यम शिवम सुन्दरम जैसी पवित्र शब्दावली मैं सत्यम है!
ध्यान रहे, जैसा की धार्मिक व्यक्ति की परिभाषा से भी स्पष्ट है, धर्म भौतिक है, भावनात्मक नहीं होता, उसको निभाना हर समाज में रहने वाले व्यक्ति के लिए अनिवार्य है | लकिन इससे तो समाज सुधर जाएगा, शोषण समाप्त हो जाएगा, इसलिए यह कभी बताया नहीं जाता |
मेरे ब्लॉग में अनेक पोस्ट उपलब्ध हैं, जो विस्तार से यह बताती हैं, और प्रमाण भी प्रस्तुत करती हैं कि कैसे जानबूझ कर संस्कृत विद्वानों ने पिछले ५००० वर्षो में समाज के शोषण हेतु धार्मिक प्रवचनों में भावना का भाग बढ़ा रखा है, और कर्म के भाग को कम कर रखा है, ताकि समाज कर्महीन रहे, मानसिकता गुलाम-वाली रहे |
क्या आपको मालूम है कि अकेले मुख्य चारो बड़े शहर; दिल्ली, मुंबई, कौलकत्ता और चिन्नई से हर घंटे हर शहर से कमसे कम एक बच्चा अगवा कर लिया जाता है, इसी काम के लिए, यानिकी भीक मंगवाने के लिए| ताकि दानी उसपर दया कर सके उसका हाथ या पैर काट दिया जाता है, अपंग कर दिया जाता है | 

यह जुल्म अगवा करे हुए बच्चो पर इसलिए होता है, ताकि आपको ‘योग्य व्यक्ति को दान दिया’ का लाभ मिल सके | और , यह कोइ बताता नहीं, लकिन आप तो सोच सकते हैं कि अगर छोटे बच्चे अगवा हो रहे हैं, ताकि आप ‘दान’ का पुन्न कम सके तो क्या आपको पुन्न मिलेगा, या घोर नरक ?

सरकार और सामाजिक संस्थान बार बार Advisory(सलाह, परामर्श) भी देती रहती हैं कि “कृप्या, कृप्या बच्चो को भीक देना बंद करो” , लकिन आज तक किसी धर्मगुरु/विद्वान ने धार्मिक आदेश पारित नहीं करा कि यह बंद होना चाहीये | 

और हिन्दू समाज इतना कर्महीन है कि उसकी कर्महीनता के कारण मुख्य सडको पर , मंदिरों की सीढ़ियों पर अपंग, अपाहिज बच्चे , जिनके हाथ या पैर कटे हुए होते हैं...’दान के उचित पात्र’ के रूप में मिल जाते हैं , और सरलता से उसका धार्मिक उद्देश पूर्ण होता है |
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