इस विषय पर बहुत समय से लिखने का मन था, लकिन समय के आभाव से संभव नहीं हो पा रहा था| गोस्वामी तुलसीदास जी की पूरी मानस पढ़िए, तो आपको ऐसा नहीं लगेगा, कि इस कथन के अनुकूल मानस मैं कोइ चरित्र था| कम से कम मुझे तो नहीं मिला, और भी अनेक जानकारों से पुछा उनका भी यही कथन था; हाँ ‘गवाँर सूद्र पसु नारी’ यह चारो हैं अवश्य मानस मैं, और उनके साथ किस प्रकार का व्यवाहर तुलसीदास जी ने करा है, वोह भी प्राय: सबको मालूम है|
तुलसीदास जी ने किसी को तारण का अधिकारी नहीं समझा|
वानर मनुष्य की नई प्रजाति थी, जिसके पूछ थी, और उनको समाज मानव होने की मान्यता तक नहीं दे रहा था, और मानस मैं राम ने वानर सेना के साथ युद्ध लड़ा| सम्मानित करा!
केवट, उनके मित्र और सखा थे, शबरी के झूठे बेर खाए, और तुलसीदास जी के कथन मैं कही इस प्रकार का कटाक्ष नज़र नहीं आया : ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी|
जटायु, जिसे गीधराज भी कहा गया है, उसका मृत्य उपरान्त अंतिम क्रियाकर्म श्री राम ने करा, और तुलसीदास जी की शैली से यही लगता है, की वे चाहते थे की सब पशु-पक्षी का सम्मान होना चाहिए, तथा, मानव के बीच मैं कोइ भेद भाव नहीं होना चाहिए|
दूसरी तरफ रावण एक प्रतिष्टित ब्राह्मण होते हुए, तुलसीदास जी की निंदा का पात्र रहे, वोह भी मात्र अपने कर्मो के कारण|
दूसरी तरफ रावण एक प्रतिष्टित ब्राह्मण होते हुए, तुलसीदास जी की निंदा का पात्र रहे, वोह भी मात्र अपने कर्मो के कारण|
तो फिर तुलसीदास जी ने यह पंक्ति क्यूँ लिखी, या यह भी चेपक की श्रेणी मैं आती है, अत: बाद मैं इसे जोड़ दिया गया हो| नहीं, यह पंक्ति तुलसीदास जी ने ही लिखी है, और उसके लिखने का कारण था उस समय की सोच|
जब कोइ भी व्यक्ति समाज मैं कुछ अभूतपूर्ण बदलाब का प्रयास कर रहा हो, तो उसका विरोध होता है, और काफी व्यापक तरीके से होता है| तुलसीदास जी, वाल्मिकी रामायण से हट कर कुछ लिख रहे थे, और वोह भी अवधी मैं यानी की एकदम सरल भाषा मैं, तो विरोध तो उनका पूरी तरह से हुआ था, और विरोधी एक बार तो मानस को चुरा करभी लेगए थे|
मानस मैं आपको गुरु के आचरण और उस समय से जुडी हुई रुधीवाद पर परस्पर विरोधी मत मिलेंगे, और उसका कारण था, तुलसीदास जी, अपनी लेखनी से कुछ स्थान, उस समय के धार्मिक समाज, और शक्तिशाली लोगो को देने का प्रयास कर रहे थे| और वोह बहुत आवश्यक भी था, आखिर उसी समय के हिन्दू समाज के लिए ही तो वे लिख रहे थे, और उस समाज मैं अपनी विचारधारा को पहुचाने के लिए यह आवश्यक था, कि कम से कम कुछ धार्मिक समाज, और शक्ति शाली लोग उसका विरोध ना करें |
मानस मैं आपको गुरु के आचरण और उस समय से जुडी हुई रुधीवाद पर परस्पर विरोधी मत मिलेंगे, और उसका कारण था, तुलसीदास जी, अपनी लेखनी से कुछ स्थान, उस समय के धार्मिक समाज, और शक्तिशाली लोगो को देने का प्रयास कर रहे थे| और वोह बहुत आवश्यक भी था, आखिर उसी समय के हिन्दू समाज के लिए ही तो वे लिख रहे थे, और उस समाज मैं अपनी विचारधारा को पहुचाने के लिए यह आवश्यक था, कि कम से कम कुछ धार्मिक समाज, और शक्ति शाली लोग उसका विरोध ना करें |
तो इसे आप बिलकुल अच्छी तरह से समझ लीजिये की यह पंक्ती मात्र उस समय के धार्मिक और शक्तिशाली लोगो की सोच के अनुकूल थी, ताकी उनमें से कुछ लोग तो मानस का विरोध ना करें, और इस प्रकार हर उस व्यक्ती को काम करना पड़ता है, जो समाज मैं बदलाव लाने का प्रयास कर रहा है |
एक बात और, जबसे इस्लाम, इस्साई धर्म भारत मैं आया है, हमारे यहाँ के आलोचकों, और समीक्षकों की एक गलत आदत हो गयी है, की सीधे धार्मिक ग्रंथो को मिथ्या कह कर फिर लेख शुरू करो| कृप्या यह आदत समाप्त करदें|
जय श्री राम, जय माता सीता !!
इस बारे में काफि गलतफहमिया समाज मे मौजूद है , इन्हे दूर करना होगा -प्रसाद बापट
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