Evolution/creation does not take place when everything is perfect, or at harmony (SUR) with each other.
No you need chaos/disharmony to carry forward the growth story,
and for that we need Asurs (disharmony).
This fact is well known to the entire scientific community.
प्राकृतिक विकास/सर्जन तब असभव है, जब सब कुछ दोषरहित हो, या यह कहीये कि सब के सुर मिल रहे हैं या सामंजस्य में हैं |
नहीं, आपको अस्तव्यस्तता, असामंजस्य की आवश्यकता होती है, और उसके लिए आपको असुर चाहीये | इस सत्य को सम्पूर्ण विज्ञानिक संसार जानता और मानता है !
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‘पूर्णता क्षणिक और अस्तव्यस्तता अनन्त है’,
और
हिंदू अस्तव्यस्तता मैं ही विश्वास रखते हैं, और यह भी एक कारण है सनातन धर्म के अनन्तता का|
धर्म के परिपेक्ष मैं क्या अंतर है पूर्णता मैं और अस्तव्यस्तता मैं?
पूर्णता आपको बाकी सब धर्म/रिलिजन/मजहब मैं देखने को मिल जायेगी, और सनातन को छोड़ कर, बाकी सब नियम प्रधान धर्म होते हैं, जिसको मानना अनिवार्य है| इन नियमो मैं समाज की बदलती हुई स्तिथी मैं छोटे मोटे बदलाव भी कष्टदायक हो जाते हैं|
पूर्णता आपको बाकी सब धर्म/रिलिजन/मजहब मैं देखने को मिल जायेगी, और सनातन को छोड़ कर, बाकी सब नियम प्रधान धर्म होते हैं, जिसको मानना अनिवार्य है| इन नियमो मैं समाज की बदलती हुई स्तिथी मैं छोटे मोटे बदलाव भी कष्टदायक हो जाते हैं|
कुछ उद्धरण बात समझने के लिए उपयुक्त रहेंगे :
पहले समाज राज्य प्रधान था, यानी की राज्यों की सीमाए बदलती रहती थी, और उन्ही का आदर करता था| राष्ट्रीयता क्या है उससे किसी को मतलब नहीं था| इस युग मैं चाणक्य ने २३०० वर्ष पूर्व भारत मैं राष्ट्रीयता का नारा बुलंद करा, और क्यूँकी सनातन धर्म वर्तमान समाज को केंद्र बिंदु मान कर चलता है, तो किसी ने उसका विशेष विरोध नहीं करा| और अब यूरोप मैं देखीये; जॉन ऑफ आर्क, एक १९ वर्ष की कन्या ने फ्रांस मैं राष्ट्रीयता का नारा लगाया तो इसाई पादरियों ने उसे जिन्दा जलाने का आदेश दे दिया, और जिन्दा जला भी डाला| वोह सत्य है की बाद मैं उसे संत की उपाधी भी दी, लकिन उद्धारण का कारण यह है घोर कष्ट के बाद बदलाव आया|
और भी उद्धरण दिए जा सकते हैं|
सत्य तो यह है की सनातन धर्म मैं कोइ भी नियम नहीं है| धर्म और धार्मिक व्यक्ति की परिभाषा है, जो की पहले भी अनेक पोस्ट मैं दी जा चुकी है, यहाँ भी नीचे दी जायेगी. और वर्तमान समाज को केंद्र बिंदु मान कर आगे बढ़ने का प्रावधान है|
लकिन यह भी सत्य है की अधिकाँश समय धर्म समाज की प्रगति नहीं करा पाया| अवसरवाद और छोटे मोटे लाभों के कारण धर्म गुरु और राजा, दोनों ने मिल कर, चाणक्य के जाने के बाद, राष्ट्रीयता को दफना दिया| और पिछले १२०० वर्ष का इतिहास उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है| छोटे छोटे राज्य थे, हर राज्य मैं राजा था और राजगुरु था, लकिन राष्ट्रीयता की किसी ने कोइ बात नहीं करी, जबकी चाणक्य का इतिहास उपलब्ध था| हिन्दुस्तान बर्बाद होता गया, लुटता रहा, और वे धर्मगुरु राजगुरु भी नहीं बचे|
अब कुछ अस्तव्यस्तता के बारे मैं:-
सनातन धर्म मात्र एक ऐसा धर्म है जो;
साम्यता, सामंजस्य , सुर जो की किसी भी परिस्थिति को पूर्णता की और ले जाता है,
और
उसीके विपरीत शब्द हैं असाम्यता , असामंजस्य और असुर जो की किसी भी परिस्थिति को अराजकता की और ले जाते हैं
दोनों की महत्वता को स्वीकार करता है| और यही कारण है कि सनातन धर्म पूर्णता मैं नहीं अस्तव्यस्तता मैं विश्वास रखता है| हमारे यहाँ एक विशेष प्राविधान है, कि जो बात किसी कारणवश ना समझ मैं आये तो वेदान्त ज्योतिष का सहारा लेना है, और वेदांत ज्योतिष मैं असुरो के धर्मगुरु शुक्राचार्य को बराबर का महत्त्व दिया गया है| यहाँ तक की संजीवनी विद्या केवल शुक्राचार्य ही जानते है; क्या अर्थ हुआ इसका? साफ़ है कि पुनर्निर्माण, मृत्यु को पीछे धकेलने के लिए, चाहे औषधि हो, या प्रकृती हो असाम्यता, असामंजस्य का विशेष महत्व है|
कृप्या अपने धर्मगुरु-जानो को समझाएं की वर्तमान समाज को केंद्र बिंदु मान कर ही आगे बढ़ें|
नीचे धर्म और धार्मिक व्यक्ति की परिभाषा दी जा रही है:
सनातन धर्म समय समय पर समाज की अवस्था देख कर, समाज के लिए जो नियम व धार्मिक दिशा निर्देश देता है, जिससे
१) समाज की रक्षा हो सके,
२) समाज मैं आपसी प्रेम और भाईचारा बना रहे, और परस्पर सहयोग से हर समस्या से निबटने के लिए क्षमता विकसित हो सके,
३) धार्मिक प्रवचन मैं उचित अनुपात भावना और कर्म(भक्ति और कर्म) का सुनिश्चित करना, समाज की स्तिथी के अनुसार|
जैसे की अभी हाल की १०००० वर्षों की गुलामी मैं समाज का स्वरुप एक अबोध बालक की तरह था, तो भक्ति भाग बढ़ा दिया गया, और यहाँ तक की कर्मवीर श्री कृष्ण को गोपियों के साथ रास रचाते दिखा दिया|
ठीक उसी तरह आज समाज की क्षमता है, युवा व्यवस्था है, हिंदू समाज की , और अब भक्ति भाग घटा कर कर्म का भाग बढ़ना था, जो की नहीं हुआ, और हिंदू समाज कर्महीन हो गया ..
यह अति आवश्यक है|
४) समाज मैं हर व्यक्ति को सामान अवसर के आधार पर उनत्ति का अवसर प्रदान करने मैं सहायक होना|
धार्मिक व्यक्ति: वह व्यक्ति जो की अपनी उन्नति के लिये, अपने परिवार, तथा अपने पूरे परिवार, तथा जिस समाज, मोहल्लें, या सोसाइटी मैं वो रह रहा है, उसकी उनत्ति के लिये पूरी निष्ठा व् इमानदारी से कार्यरत रहता है वो धार्मिक व्यक्ति है! ऐसा करते हुए वो समाज मैं प्रगती भी कर सकता है व् घन अर्जित भी कर सकता है !
यहाँ यह स्पष्टीकरण आवश्यक है कि निष्ठा व् इमानदारी से कार्यरत रहने का यह भी आवश्यक मापदंड है कि वह व्यक्ति समस्त नकरात्मक सामाजिक बिंदुओं का भौतिक स्थर पर विरोध करेगा , जैसे कि भ्रष्टाचार, कमजोर वर्ग तथा स्त्रीयों पर अत्याचार, पर्यावाह्रण को दूषित करना या नष्ट करना, आदी, ! ऐसा व्यक्ति सत्यम शिवम सुन्दरम जैसी पवित्र शब्दावली मैं सत्यम है!
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