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जब जब धर्म कि हानि होती है तो भगवन मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं !
सत्ययुग में विभिन्न अवतार क्यूँ प्रकट होए इस पर चर्चा होगी !
इससे पहले आप को यह जानना आवश्यक है कि सत्ययुग के प्रारम्भ में स्तिथि क्या थी !
पिछले कलयुग और नये महायुग/कल्प के बीच में लाखो वर्ष का संधि काल होता है, तथा उसमें पृथ्वी पुन: उत्साहित और उर्जावान होती है ! सत्ययुग नई श्रृष्टि का प्रारम्भ है, इसलिये अत्यंत धीमी गति से श्रृष्टि का विकास होता है ! परन्तु पिछले युग के कुछ मनुष्य इस श्रृष्टि का अंग भी बनते हैं, वो आर्य तथा राक्षस कहलाते हैं(विस्तृत जानकारी के लिये पढे : कलयुग का अंत..एक नए कल्प का प्रारम्भ और मत्स्य अवतार )
ऊँची ऊँची लहरें समुन्द्र में उठने लगी तथा पृथ्वी का क्षेत्र थोडा और बड गया, साथ में उन्हे कुर्म य कछुआ के भी दर्शन होने लगे जो कि समुन्द्र से निकलता, थोड़ी देर पृथ्वी पर रहता, फिर वापस समुन्द्र में चला जाता ! उन्होंने उसे इश्वर अवतार मान लिया ! उसी के कारण समुन्द्र में लहरे उठने लगी तथा पृथ्वी का क्षेत्र बढ़ने से मनुष्य अपने को थोडा और सुरक्षित अनुभव करने लगा ! कुर्म अवतार इस महायुग के, तथा सतयुग के पहले अवतार हैं !
विज्ञानिक दृष्टि से राहू और केतु, जो कि चन्द्र के कक्षीय नोड्स हैं वोह अब स्थिर नहीं रहे, या यूँ कहीये कि चन्द्रमा ने अपनी धूरी सूर्य के संधर्भ में बदलनी शुरू कर दी, जिससे समुन्द्र मंथन का आभास होने लगा , और समुन्द्र मैं लहरे उठने लगी!
अभी भी मनुष्य भय का जीवन व्यतीत कर रहा था, परन्तु इश्वर पर विश्वास उसका बढ़ गया था ! उसे लगने लगा था कि संभवत: इश्वर आगे भी उसकी रक्षा करेगा ! प्रकृति का विकास य इश्वर, जो भी आप मान ले, ने निराश भी नहीं करा ! कुछ सदियों बाद जब राक्षस कुर्म अवतार के उपरान्त वाली स्तिथि पर भी मनुष्य पर हावी होने लगा तो फिर एक अज्ञात घटना ने पृथ्वी का क्षेत्र फल काफी बढ़ा दिया ! अब वोह सुरक्षा दृष्टि से स्थान का चुनाव कर सकते थे, ताकि राक्षसों से बच सके ! इन मनुष्यों को बार बार वराह दिखाई पड़ता था जो कि वन से निकलता मनुष्यों को देखता और वन में वापस चला जाता; वोह समुन्द्र में नहीं जा रह था ! उन्होंने उसे इश्वर का अवतार मान लिया !वाराह के दर्शन उपरान्त पृथ्वी के क्षेत्रफल का अत्यधिक विस्तार हूआ !
संकट में मनुष्य कि कुशलता बढ़ जाति है ! मनुष्य जानते थे कि वन में एक नई प्रजाति विकसित हो रही है, जिसे अभी तक मनुष्य वानर कहते थे तथा उसे पशु समझ कर ही व्यवाहर करते थे! वानर दो पेरो से चलते थे, मनुष्य से मनुष्य कि भाषा में बात करते थे, तथा व्यवाहर अत्यंत ही निर्मल था ! मनुष्य ने वानर को भी इस बात के लिये मना लिया कि राक्षस पर एक साथ हमला करा जाय ! चुकि वानर भी राक्षस के व्यवाहर से त्रस्त थे तो वोह सहेज ही मान गए ! मिल कर उन्होंने आकस्मिक आक्रमण हिरनकश्यप के भवन पर करा, जिसके लिये वोह तैयार भी नहीं था ! हिरणकश्यप का वध नरसिंह नामक वानर ने किया ! नरसिंह का मुख सिंह जैसा था ! आज भी हम नरसिंह को विष्णु अवतार मानते है !
सत्ययुग के इतिहास से एक बात तो स्पष्ट है ; मनुष्य का जीवन उस समय अत्यंत कष्टदायक था ! हर संभव प्रयास करके मनुष्य केवल जीवित रह पा रहा था ! परन्तु वो जीवन किसी भी परिभाषा में स्वाभिमान का जीवन नहीं कहला सकता था ! उधर मनुष्य कि नई प्रजाति वानर के साथ स्वंम मनुष्य का अमानवीय व्यवाहर सत्ययुग के मनुष्य को लज्जापूर्ण जीवन से अधिक दर्जा नहीं दे सकता !
आप इसपर चर्चा भी कर सकते हैं ...जो कुछ ऊपर कहा गया है, वोह सब हिंदू मान्यता और धर्म ग्रन्थ, और पुराणों से ही लिया गया है , बात बस इतनी सी है कि १००० वर्ष की गुलामी के कारण समाज को भावनात्मक आधार पर कष्ट से निबटने के लिए, यह विश्वास दिलाया गया था, कि कलयुग सबसे कष्टदायक युग है, इसलिए कष्ट तो सहने पड़ेंगे |
1 comment :
Jai Ram!
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